वो लम्हे (डे ऑफ फेयरवेल)

Farewell ki is suhaani shaam aur mere pyare senior’s ke naam maine likhi hai ye 4 panktiya is ummeed ke saath ki yaha baithe har kisi ke dil ko chu jaaye meri ye baat

“Kabhi kabhi zindagi ke kuch pal itne khas ban jate hai ki wo humse hamesha ke liye jud jate hai aur na chahte huye bhi wo humse dur chale jaate hai ,phir kuch yaadien is zehan me is kadar sama jati hai ki zindagi ke har mod par wo lamhe yaad aate hai”

इन्ही लम्हो के साथ कुछ यूं!!!!

वो लम्हें जो मेरी ज़िंदगी के अनमोल पल बन गये,
वो लम्हें जो मेरे गुज़रे हुये कल बन गये,
काश इन लम्हों को मैं फिर से जी पाता,
वो लम्हें जो मेरी नम आँखो के जल बन गये.

आँखों में सपने और दिल में अरमान लिये,
एक सफ़र में चल पड़े बिना किसी का साथ लिये,
रास्ते में कुछ नये चेहरों से मुलाकात हो गई,
फिर तो वो ऐसे दोस्त बने जैसे एक रिश्ता हो उम्र भर के लिये.
वो लम्हें जो मुझे चाहने वाले मेरे दोस्त दे गये,
वो लम्हें जो ना भूला पाने वाले कुछ लोग दे गये.

इस सफ़र की शुरुआत हमने साथ की थी,
जान से प्यारे यारों के साथ कितनी सारी बात की थी,
ज़िंदगी के उन पलों को भी हमने साथ जिया था,
जिन पलों ने खुशी और गम दोनो से मुलाकात की थी.
वो लम्हें जो अब लौट के नहीं आ सकते,
वो लम्हें जहाँ हम चाह के भी नहीं जा सकते.

अपने यारों के दिल की बात हम बिना कहे जान लेते थे,
कौन पसंद है किसको ये थोड़े से झगड़े के बाद हम मान लेते थे,
कैंटीन और कैफ़े की पार्टियां तो रोज़ हुआ करती थी,
खूबसूरत लड़कियों को कॉल करके,, ना जाने कितने नाम लिया करते थे.
वो लम्हें जो एक धुंधली याद बन गये,
वो लम्हें जो एक यादगार किताब बन गये.

कॉलेज आने का मन नहीं फिर भी कॉलेज आया करते थे,
कुछ लोगों को गर्ल फ्रेंड और बाकियों को टीचर बुलाया करते थे,
एग्जाम देने की तो जैसे आदत सी हो गई थी,
फिर रिज़ल्ट देख के कुछ रोते तो कुछ मुस्कुराया करते थे.

अजीब थे ये लम्हें जिसमें हम हँसे भी और रोये भी,
अजीब थे ये लम्हें जिसमें कुछ पाये भी और कुछ खोये भी.
इन लम्हों को एक याद बना के अपने साथ ले जाउँगा,
इन लम्हों की दास्तान फिर किसे सुनाऊंगा, क्योंकि…….
क्या इन लम्हों को मैं फिर से जी पाउँगा? क्या ऐसे माहौल में मैं फिर से वापस आ पाउँगा?
क्या ये कविता इस स्टेज पे मैं फिर से सुना पाउँगा?
मैं जानता हूँ इसका जवाब तो ना ही होगा,
क्योंकि लिखी हुई किताब को मैं फिर से कोरा कैसे कर पाउँगा.
बस इन लम्हों को अपने दिल मे बसा लूँगा,
और जब याद आयेगी आप सबकी तो नम आँखो के साथ मुस्कुरा लूँगा.
मनीष (machine) ,है मेरा नाम और ये था मेरे सीनियर’स के लिए एक छोटा सा पैगाम.

✍मनीष रंजन
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